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न॒हि व॑ ऊ॒तिः पृत॑नासु॒ मर्ध॑ति॒ यस्मा॒ अरा॑ध्वं नरः। अ॒भि व॒ आव॑र्त्सुम॒तिर्नवी॑यसी॒ तूयं॑ यात पिपीषवः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nahi va ūtiḥ pṛtanāsu mardhati yasmā arādhvaṁ naraḥ | abhi va āvart sumatir navīyasī tūyaṁ yāta pipīṣavaḥ ||

पद पाठ

न॒हि। वः॒। ऊ॒तिः। पृत॑नासु। मर्ध॑ति। यस्मै॑। अरा॑ध्वम्। न॒रः॒। अ॒भि। वः॒। आ। अ॒व॒र्त्। सु॒ऽम॒तिः। नवी॑यसी। तूय॑म्। या॒त॒। पि॒पी॒ष॒वः॒ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:59» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:29» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पिपीषवः) पान करने की इच्छा करनेवाले (नरः) अग्रणी जनो ! जिन (वः) आप लोगों की (ऊतिः) रक्षा आदि क्रिया (पृतनासु) मनुष्यों की सेनाओं में (नहि) नहीं (मर्धति) हिंसा करती है और (यस्मै) जिस के लिये आप लोग (अराध्वम्) आराधना करते हैं वह (वः) आप लोगों के (अभि, आ, अवर्त्) समीप सब प्रकार से वर्त्तमान होता है और जिनकी (नवीयसी) अतिशय नवीन (सुमतिः) उत्तम बुद्धि है वे आप लोग विद्या को (तूयम्) शीघ्र (यात) प्राप्त हूजिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! आप लोग इस प्रकार से प्रयत्न करिये, जिससे आप लोगों की न्याय से रक्षा सेना की बढ़ती और उत्तम बुद्धि कभी न न्यून हो ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे पिपीषवो नरो ! येषां व ऊतिः पूतनासु नहि मर्धति यस्मै यूयमराध्वं स वोऽभ्यावर्त् येषां नवीयसी सुमतिरस्ति ते यूयं विद्यां तूयं यात ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नहि) निषेधे (वः) युष्माकम् (ऊतिः) रक्षाद्या क्रिया (पृतनासु) मनुष्यसेनासु (मर्धति) हिंसति (यस्मै) (अराध्वम्) स्मर्धयन्ति (नरः) नायकाः (अभि) (वः) युष्माकम् (आ) (अवर्त्) आवर्तते (सुमतिः) शोभना प्रज्ञा (नवीयसी) अतिशयेन नवीना (तूयम्) तूर्णम्। तूयमिति क्षिप्रनाम। (निघं०२.१५)। (यात) प्राप्नुत (पिपीषवः) पातुमिच्छवः ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! भवन्त एवं प्रयतन्तां येन युष्माकं न्यायेन रक्षा सेनाः समृद्धिरुत्तमा प्रज्ञा कदाचिन्न ह्रस्येत ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! तुम्ही असा प्रयत्न करा की, ज्यामुळे तुमच्या न्यायामुळे, रक्षण, सेनेची वाढ व उत्तम बुद्धी कधी न्यून होता कामा नये. ॥ ४ ॥